Tuesday, February 25, 2014

तुझसे अब कुछ पाने की चाह नहीं है


पहले ही क्या कम थे ग़म, जो ज़ख्म दे दिया हरा
बाँध दिया जो सर पे मेरे, जुदाई का नया सेहरा
क्या देखा नहीं है तूने सिसकियों को मेरी?
उम्र भर तो बर्वादियों की गवाह रही है,
ज़िन्दगी तुझसे अब कुछ पाने की चाह नहीं है।

पहले भी करबटों ने परेशान किया था
आँखों ने बहते लहू का घूँट पीया था
क्या मिल गया तुझे रात की लंबाई बढा करके?
बद्सलूकी तेरी बयाँ करते अल्फाज़ नहीं हैं,
ज़िन्दगी तुझसे अब कुछ पाने की चाह नहीं है।

नहीं देख सकती मुझे खुश अगर
तो मूँद दे आँखें मेरी, इतना रहम कर
क्यों नहीं कफ़न से मेरी मुलाकात करा देती?
दुखती इस रूह का अंजाम वही है,
ज़िन्दगी तुझसे अब कुछ पाने की चाह नहीं है।


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